वो भी क्या दिन थे,
आंसू नहीं थमते थे .
उपन्यासों के घटनाक्रम
रुला देते थे .
उपन्यासों के पात्र
संगी-साथी होते थे .
कहानी के उतार-चढ़ाव
मन की नैय्या को देते थे हिचकोले .
किताबों की जिल्द में बंधे थे
कितने ज्वार भावनाओं के .
वो लिखने वाले ,
जीवन गंगा में,
डुबकी लगा के ,
लिखते थे जो ,
उनके शब्द सजीव होते थे.
और शेष उम्र के तकाज़े थे .
अनुभूति के कागज़ कोरे थे .
रंग चटख चढ़ते थे.
और पूरे चढ़ते थे.
तो क्या वय के साथ सारे
रंग फीके पड़ गए थे ?
आंसुओं में भीग के
गीले कागज़ फट गए थे ?
नहीं . न कागज़ गले थे .
न अक्षर मिटे थे.
पर बहुत जल्दी हम समझ गए थे ,
उपन्यास के पात्र झूठे नहीं थे .
वे सब परिचित-अपरिचित, अपने - पराये ,
सब अपने थे, आसपास थे .
हमेशा से वे सचमुच के लोग थे .
बस बदले तो नाम मात्र थे .
जो कथानक था .
कथित रूप से काल्पनिक था .
वर्ना , सब कुछ कहीं ना कहीं घटा था .
लेखक किस पात्र को कहाँ
किस घटनाक्रम से जोड़ता था
और अंततः जो कहना चाहता था
या मन में जो भाव जगाता था ,
वही सार्वभौमिक संवेदना का सूत्र था ;
जो लेखक की कलम को पेंट - ब्रश बना देता था .
और पाठक के अवचेतन को कैनवस बना देता था .
उस उम्र में जब मन पर मनों
जीवन संघर्ष की गर्द परत दर परत
जमी नहीं थी ,
रंग सारे सच्चे और गहरे चढ़ते थे .
इसीलिए तब ही जान लिया था -
काल्पनिक कथा में जितना सच था ,
जीवन यथार्थ को उतना
अच्छी तरह समझा देता था .
वो भी क्या दिन थे .
जब उपन्यासों ने हमें
संवेदनशील बनाया .
जीवन को परखना
और सराहना सिखाया .
वो भी क्या दिन थे .
जब आंसू नहीं थमते थे .
वो भी क्या दिन थे .
जब किताबों के पन्ने
मन पर छपते थे .