शुक्रवार, 1 जून 2018

हिसाब


सब हिसाब मांगते हैं ।  
पल-पल का  हिसाब मांगते हैं ।

बच्चे अपने माँ-बाप से  
गिन-गिन कर हिसाब मांगते हैं। 
पूछते हैं बार-बार गुस्से से, 
आपने हमारे लिए क्या किया ?
जो किया क्या वो काफ़ी था ?
जो नहीं किया उसका हिसाब कौन देगा ?

पति-पत्नी एक दूसरे से,  
एक दूसरे के परिवारों से, 
चुन-चुन कर हिसाब मांगते हैं। 
तुमने मेरे साथ ऐसा किया !
तुमने मुझे क्या से क्या बना दिया !
तुम्हारे घरवालों को मैंने कितना झेला !
कौन इन बातों का हिसाब देगा ?

अपने दोस्त हिसाब मांगते हैं। 
दोस्ती की बदौलत नफ़ा-नुक्सान जो हुआ ,
एक-एक पाई का हिसाब मांगते हैं । 
इतने दिनों की दोस्ती में मुझे क्या मिला ?
तुमने आख़िर मेरे लिए क्या किया ?
मैंने जो निष्काम भाव से तेरे लिए किया,
उस निस्वार्थ मित्रता का हिसाब कौन देगा ?

सब हिसाब मांगते हैं। 
और एक दिन ऐसा आता है,
जब जीवन हमसे हिसाब मांगता है । 
तुम्हें तो मैंने जीवन उपहार दिया था । 
तुमने उसे हिसाब-क़िताब कैसे समझ लिया ?
संसार ने तुम्हें बहुत कुछ दिया । 
जो रह गया या कलेजे को बींध गया,
तुमने उसे ही जीवन की धुरी बना लिया ?
जीवन का सार जो तुमने नहीं जाना,
उसका हिसाब कौन देगा ?