घर का रास्ता खो गया ।
मुझे याद नहीं
अपना ही पता ।
काश कोई अपना
राह चलते मिल जाता,
घर तक पहुँचा आता ।
हे ईश्वर ! परमपिता !
तुम ही ने जब
इस भूल भुलैया का
खेल है रचा ,
तो तुम ही क्यों नहीं
अब बता देते सही पता ?
तुम्हें तो सब कुछ है पता ,
तुम्हारा ही तो है एकमेव आसरा ।
बताओ तो भला
ऐसा क्यों हुआ ?
जिन्हें तुमने मार्ग बुझाने भेजा
वो भी क्यों बुझाते हैं पहेली ?
क्यों नहीं करते बात सीधी - सच्ची ?
सहजता की क्यों कोई अब मान्यता नहीं रही ??
क्यों नहीं बोलता कोई
सहज और सरल प्रेम की बोली ?
क्या मान्यताओं और विषम परिस्थितियों में ही
उलझा कर,
लेते रहोगे तुम निरंतर परीक्षा ?
क्या सरल आस्था और समर्पण की
मिटटी में,
ना खिल सकेगा
भक्ति का पौधा ?
यदि हाँ तो अभी ही उत्तर दो ना !
मन की अपार व्यथा दूर करो ना !
मेरी ऊँगली पकड़ कर मुझे घर तक पहुँचा दो ना !