कुछ और पन्ने

रविवार, 29 दिसंबर 2019

बाप


बड़ी मुद्दत के बाद
समझ में आया,
जो बहुत पहले
समझाया गया था ।
पर समझ ..
आया नहीं था ।

माँ के मन का अवसाद
उफ़नती नदी समान
आंखों से छलक जाता है ।
जी हल्का हो जाता है,
जैसे रुई का फाहा ।
पोंछ देता है
औलाद की आँखों का  
फैला हुआ काजल ।
और हर चोट पर 
लगा देता है मरहम ।

बाप के सीने में
उठते हैं कई तूफ़ान ।
घुमड़ते हैं बादल
गरज कर,
बिना बरसे
हो जाते हैं चट्टान ।
आंसू रिस-रिस कर
भीतर ही भीतर
हिला देते हैं जड़ ।
पर व्यक्त नहीं करता
कभी भी बाप ।

विस्तार कर देता है
अपनी व्यथा का ।
बन जाता है वरद हस्त,
विशाल वट वृक्ष..
और विराट आसमान,
जो दूर से चुपचाप
रखता है सबका ध्यान ।

जब बच्चे बनते हैं माँ-बाप,
और किसी बात पर बाप
बच्चों पर उठाता है हाथ,
याद आ जाती है
एक-एक बात ।

बाप उठाता है हाथ
बच्चे की कमज़ोरियों की
बेतरतीब लकीरें 
संवारने के लिए ।
झटक देता है बच्चे को दूर
उसे अपने पैरों पे
खड़ा करने के लिए ....
अपने सामने ...
ताकि झटका लगे
तो संभाल सके,
वक़्त रहते बच्चा सीख जाए
माँ-बाप के बिना भी
चलना अकेले 
बिना डरे ।

बाप के रूखेपन की तह में
बहती है सरोकार और प्यार की नदी ।
देखना .. शायद कभी दीख जाए
बाप की आंखों में नमी ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-12-2019) को    "भारत की जयकार"     (चर्चा अंक-3566)  पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक आभार शास्त्रीजी ।
      २०२० के लिए शुभकामनाओं सहित ।

      हटाएं
  2. बहुत ही अच्छा लिखा है नुपूर। सच में ये सारी बातें देर से ही समझ में आती है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद,नम्रता ।
      शायद हर बात समझने का वक़्त, हम ख़ुद अपनी समझ से तय करते हैं ।

      हटाएं

कुछ अपने मन की भी कहिए