भान नहीं कुछ,
ज्ञात नहीं पथ,
मुंह चिढ़ा रहा
दोराहा ।
खेल खेलना
आया ना ।
कोई दांव ना
आया रास ।
जो भी खेला
पाई मात ।
समझ ना आया
ग़लत हुआ क्या ?
ध्येय समक्ष था
राह क्यों भूला ?
लक्ष्य जो चूका,
भ्रमित मन हुआ ।
धुंध छंटे ना ।
मार्ग सूझे ना ।
इस मोड़ पे ठिठका,
मैं बाट जोहता,
तुमसे विनती करता ..
पार्थसारथी कृष्ण सखा
इस बेर अर्जुन को क्या
ना समझाओगे गीता ?
रथ को ना दोगे दिशा ?
तुम्हारी ही रचना
मैं हूँ ना ?
तो फिर आओ ना
पूरी करो ना,
मेरे जीवन की
अल्पना ।
Strong. Bery strong. ठाकुर जी आपके जीवन की रंगोली में रंग भर दें।
जवाब देंहटाएंअनंत आभार अनमोल सा ।
हटाएंया अनुरागी चित्त की गति समझयौ नहीं कोय ।
ज्यों ज्यों बूड़ै श्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय ।।
बेहतरीन रचना नुपुर जी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अनुराधा जी ।
हटाएंबहुत भावपूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद । आपका बहुत दिनों में इधर आना हुआ । बहुत खुशी हुई ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (26-11-2019) को "बिकते आज उसूल" (चर्चा अंक 3531) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्रीजी । नमस्ते ।
हटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मोहतरमा ।
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार ।
हटाएंभक्तिरस में ओतप्रोत करती सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंतो फिर आओ ना!
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