झरता रहा हारसिंगार
कहा तो कुछ भी नहीं ऐसा
आपने
जो बदल दे स्वाभाव समय का
हो ऐसा अद्भुत विन्यास शब्दों का ।
नहीं
ऐसा तो कुछ भी नहीं कहा ।
बस
देख कर अनदेखा नहीं किया,
बस देखा
और सहज ही
अभिवादन किया ।
फिर कहा
नाम भी तो नहीं था पता,
पहचानता कैसे कि
किसी का परिचय दहलीज़ पर
बाट जोहता खड़ा है ,
कोई बात साथ चल रही है
एक संवाद बुन रही है ।
बस इतना ही कहा
और हंस दिए धीमे से
सुबह की धूप सी हँसी ।
आसपास खिंच गई
लक्ष्मणरेखा
सरल और निश्छल दृष्टि की ।
अनायास ही
जाने क्या हुआ,
कई दिनों का इकट्ठा हुआ
दुःख
प्रतिकार
जो चोट सहते-सहते
पथरा गया था,
उस पत्थर से
सोता फूट पड़ा
आंखों से
गंगा-यमुना सा जल बह चला
सूर्य रश्मि की ऊष्मा ले
पावन हो गया ,
मन हल्का हो गया
फूल सा ,
हारसिंगार झरता रहा ।