खचाखच भरा हाॅल है ।
बिगुल बज चुका है ।
अब शुरु होता है,
दुनिया का खेला ।
सामने है बङा-सा पर्दा
जो अभी उठेगा ।
जैसे ही पर्दा उठेगा
प्रत्येक पात्र सजग
किरदार में आ जाएगा ।
पहचानना मुश्किल होगा !
मुखौटों को हम जानते हैं,
किरदार को नहीं ना !
इतने पास से कब देखा है
किसी को नकाब हटा कर ?
नाटक में रहस्य है,रोमांच है !
इसी प्लाॅट में तो मज़ा है !
वर्ना सच कौन जानता है ?
या जानना चाहता है ?
इसलिए वेश-भूषा बदल-बदल
सच सबको छकाता है !
अंत तक पहुँचते-पहुँचते सच
ग़ायब हो जाएगा …
किरदार सबके मन भाएगा।
सच की परवाह किसे है ?
मुखौटा ही हाथ आएगा ।
तालियों की गङगङाहट !
पटाक्षेप होते-होते सच
दर्शक दीर्घा से चुपचाप
बाहर निकल जाएगा ।
सच साधारण जन है ।
कहीं भी मिल जाएगा ।
रंगमंच जीवन बूझने की
बहुरुपी कला है ।
बहरुपिया हमेशा
पहेलियाँ ही बुझाएगा ।
मुंबई स्ट्रीट आर्ट से ली छवि उधार.. साभार ।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह्ह अत्यंत सुंदर जगत का रंगमंच लाज़वाब रचना।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
रंगमंच के माध्यम से बहुत कुछ कहती बहुत सुन्दर रचना नुपूरं जी!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह! शानदार सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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