तपती दोपहर में
खिले गुलमोहर ,
किनारे-किनारे
सङक के,
या बगीचों में
लहक के ।
चीरती धूप में
चटक नारंगी
और लाल रंग के
कालीन बिछे
बीचोंबीच
बाज़ारों के,
गाङियों की छत पर,
फुटपाथ पर ।
आंधियों में उङती
पंखुरियां मानो
कहानियों की
लाल परियां ।
याद आती हैं
रेगिस्तानी इलाकों में
चटक चूनरी ओढ़े
और घाघरा पहने
पानी के गीत
गुनगुनाती,
हँसती-खिलखिलाती
पतंगों सी,
रेत में फूल खिलाती
लपटों सी चलती जाती
सखियों की टोली!
बेजान पस्त पथिक
प्याऊ का पानी पी कर
सुस्ता लेते कुछ देर
घने पेङ के नीचे ।
सहसा पङती जो नज़र
गुलमोहर पर..
कुछ सोच कर..
छिटक कर क्लांत भाव,
सारी थकान, पुन: प्रयाण..
उठ खङा होता पथिक
और चल देता दृढ़तापूर्वक,
सधे हुए कदम बढ़ते आगे ।
भट्टी से जलते जिन दिनों में
झुलस जाते हैं पेङ तमाम,
उन्ही भाङ से भुनते दिनों में
क्या टूट कर खिलता है गुलमोहर !
कुछ और पन्ने
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बेहद मनमोहक, सुंदर बिंबों से सजी लाज़वाब रचना।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ११ जून २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर रचना
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