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मंगलवार, 9 जनवरी 2024

जिजीविषा


तुम्हारी नियति ही यही है ।

आघात सहना और जीना ।

घनी छाँव देख मुसाफ़िर 

सुस्ताने आ बैठते इस ठौर ।

कुछ पहर बैठ कर निश्चिंत

चल देते हैं गंतव्य की ओर ।


पंछी भी कई डालते डेरा, 

कुछ ही दिन का रैन बसेरा ।

नित दाना-पानी जुगाड़ना,

टहनियों पर टिका घोंसला,

बच्चों के संग चहचहाना.. 

वह भी कितने दिन का ?


शाखों पर खिलते फूल-फल,

तितलियों के रुपहले पंख,

भंवरे की गुन-गुन-गुन गुंजन 

गिलहरी चंचल परम व्यस्त

हर डाली पर चहल-पहल ..

इक दिन झर जाते सभी पात ।


सब कुछ छीन लेता पतझङ 

तुम रह जाते बस एक ठूंठ ।

फिर तने पर भी होता प्रहार ।

न फल-फूल, न ठंडी छाँव ,

आदमी को कुछ नहीं दरकार,

जब उसे करना ही हो वार !


तुम्हारी नियति है ..कहा ना

बीज से पनपना और बढ़ना,

खोने-पाने का क्रम दोहराना,

मिट्टी में गहरी जङें जमाना

इसे क्या कहें कहो विडंबना ?

या कहें ठूंठ की जिजीविषा !



6 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुन्दर...
    इसे क्या कहें कहो विडंबना ?
    या कहें ठूंठ की जिजीविषा !
    आभार

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  2. विश्व हिंदी दिवस पर शुभकामनाएं
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. तुम्हारी नियति है ..कहा ना

    बीज से पनपना और बढ़ना,

    खोने-पाने का क्रम दोहराना,

    मिट्टी में गहरी जङें जमाना

    इसे क्या कहें कहो विडंबना ?

    या कहें ठूंठ की जिजीविषा !
    बहुत सुंदर सृजन
    ठूँठ की जिजीविषा
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं

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