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गुरुवार, 3 मार्च 2022

प्रजा के हित में


बङे- बङे राजे आए ।
राजों से बङे उनके अहं..
अहंकार टकराए ।

जिनके नाम पर
शुरु हुआ था युद्ध ,
वो जान बचा कर
भागते नज़र आए ।

विध्वंस के बाद वे सब
आमंत्रित किए गए जब,
तथाकथित जीत का 
जश्न मनाने के लिए,
वे या तो मारे जा चुके थे
या शरणार्थी हो गए थे ।

जब राजे ने जीत का 
परचम लहराया।
सलामी देने वाला
कोई ना था ।
राजे की विजय सभा में 
राजे अकेला था ।
प्रजा का कोई
अता-पता न था ।

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चित्र गूगल से साभार 

13 टिप्‍पणियां:

  1. नुक़सान मंत्री सन्त्रियो या राजाओं का नहीं होता आम जनता का ही होता है।
    युद्ध की यही सचाई है। सटीक रचना।
    पधारें- धरती की नागरिक: श्वेता सिन्हा

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    1. अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आपका हार्दिक आभार ।
      द्वै पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ।

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  2. प्रिय नुपूर जी, यही होना था! विध्चंसक राजा को क्यों सलामी मिले। इस जीत ने जो मिटाया वो कभी बहाल नहीं हो सकता।मर्मांतक शब्दचित्र जिसमें5नश्वर जीवन का बड़ा संदेश है।

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    1. शुक्रिया रेणु जी । जब तक राजे को यह बात समझ में आए शायद...बहुत देर हो जाती है ।

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  3. सच्चाई के धरातल पर शानदार सृजन।
    हृदय स्पर्शी रचना।

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    1. धन्यवाद सखी । सत्ता के पागलपन का शायद कोई इलाज नहीं ।

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (०५ -०३ -२०२२ ) को
    'मान महफिल में बढ़ाना सीखिए'((चर्चा अंक -४३६०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. बहुत कुछ सीखा चर्चा के इस अंक से । सरस रचनाओं के बीच स्थान देने के लिए धन्यवाद ।

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  5. ओह्ह
    काल बदलता रहता है उदाहरण गुजरता रहता है
    सब के सब साधु के तोता बन बैठे होते हैं

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    1. धन्यवाद विभा जी । साधु के तोते की बात ज़रा समझाइए ।

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  6. जीत की लिप्सा सब कुछ नष्ट कर देती है ।युद्ध का यथार्थ हर काल में यही है । लाजवाब सृजन नुपूरं जी!

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  7. शुक्रिया, मीना जी । सब कुछ गंवा कर भी आदमी बाज़ नहीं आता ।

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