बङे- बङे राजे आए ।
राजों से बङे उनके अहं..
अहंकार टकराए ।
जिनके नाम पर
शुरु हुआ था युद्ध ,
वो जान बचा कर
भागते नज़र आए ।
विध्वंस के बाद वे सब
आमंत्रित किए गए जब,
तथाकथित जीत का
जश्न मनाने के लिए,
वे या तो मारे जा चुके थे
या शरणार्थी हो गए थे ।
जब राजे ने जीत का
परचम लहराया।
सलामी देने वाला
कोई ना था ।
राजे की विजय सभा में
राजे अकेला था ।
प्रजा का कोई
अता-पता न था ।
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चित्र गूगल से साभार
नुक़सान मंत्री सन्त्रियो या राजाओं का नहीं होता आम जनता का ही होता है।
जवाब देंहटाएंयुद्ध की यही सचाई है। सटीक रचना।
पधारें- धरती की नागरिक: श्वेता सिन्हा
अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आपका हार्दिक आभार ।
हटाएंद्वै पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ।
प्रिय नुपूर जी, यही होना था! विध्चंसक राजा को क्यों सलामी मिले। इस जीत ने जो मिटाया वो कभी बहाल नहीं हो सकता।मर्मांतक शब्दचित्र जिसमें5नश्वर जीवन का बड़ा संदेश है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रेणु जी । जब तक राजे को यह बात समझ में आए शायद...बहुत देर हो जाती है ।
हटाएंसच्चाई के धरातल पर शानदार सृजन।
जवाब देंहटाएंहृदय स्पर्शी रचना।
धन्यवाद सखी । सत्ता के पागलपन का शायद कोई इलाज नहीं ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (०५ -०३ -२०२२ ) को
'मान महफिल में बढ़ाना सीखिए'((चर्चा अंक -४३६०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत कुछ सीखा चर्चा के इस अंक से । सरस रचनाओं के बीच स्थान देने के लिए धन्यवाद ।
हटाएंओह्ह
जवाब देंहटाएंकाल बदलता रहता है उदाहरण गुजरता रहता है
सब के सब साधु के तोता बन बैठे होते हैं
धन्यवाद विभा जी । साधु के तोते की बात ज़रा समझाइए ।
हटाएंजीत की लिप्सा सब कुछ नष्ट कर देती है ।युद्ध का यथार्थ हर काल में यही है । लाजवाब सृजन नुपूरं जी!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, मीना जी । सब कुछ गंवा कर भी आदमी बाज़ नहीं आता ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
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