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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

गुस्ताख़ी सूरज की



देखो तो ज़रा ढलते सूरज की गुस्ताख़ी !
आंसू बहते देखे तो ऐसी की बेअदबी !
धरती से आकाश तक करवा दी मुनादी !

ह्रदय में जिसके मायूसी, चेहरे पर उदासी, 
कुम्हलाये मुख पर जो बरबस लायेगा हंसी,
उसे मिलेगी खुशियों की करामाती पिटारी !

कहते ही सांझ ने तान दी चुनरी रंग-बिरंगी,
लाल, गुलाबी, हरी, पीली, बैंजनी, नारंगी !
मद्धम हुई फिर रोशनी नीलम से नभ की ।

एक-एक कर तारे चमके साथ चंद्रमा भी,
टिमटिमाते दियों से जैसे जगमगा उठी ज़मीं,
झिलमिल उजली मुस्कान नयनों में झलकी !

घर-घर हुई रोशनी मिटाती तम की पहरेदारी !
किसी को हंसाने से भी मिलती है तसल्ली बङी,
खोई हंसी मिलती है अपने आसपास ही कहीं ।

16 टिप्‍पणियां:

  1. एक-एक कर तारे चमके साथ चंद्रमा भी,
    टिमटिमाते दियों से जैसे जगमगा उठी ज़मीं,
    झिलमिल उजली मुस्कान नयनों में झलकी !..
    बहुत सुंदर, मनोहारी पंक्तियां, सराहनीय रचना ।

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    1. आपकी एकमात्र प्रतिक्रिया पाकर अपार प्रसन्नता हुई । तहे-दिल से शुक्रिया, जिज्ञासा जी ।
      नमस्ते ।

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  2. उत्तर
    1. धन्यवाद, नीतिश जी.
      संवेदना और भावना
      मझधार में डगमगाती
      नाव की दो पतवार
      लगा देती है पार.

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  3. घर-घर हुई रोशनी मिटाती तम की पहरेदारी !
    किसी को हंसाने से भी मिलती है तसल्ली बङी,
    खोई हंसी मिलती है अपने आसपास ही कहीं ।
    खूबसूरत भाव से सजी बहुत ही सुंदर रचना!

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    उत्तर
    1. आपको अच्छी लगी, यह जान कर ख़ुशी हुई.
      हम सबका सुख-दुःख साझा है.

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  4. वाह!खूबसूरत भावों से सजी रचना ।

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    उत्तर
    1. आपके पदार्पण से शोभा बढ़ गई ! शुभा जी !
      सस्नेह स्वागत और धन्यवाद. नमस्ते.

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  5. प्रति कविता,

    सर्दियों की सांझ को जब सूरज जाने लगा तो मन उदास हुआ। अभी क्यू चल दिए? तुम गए तो सर्दी फिर छ जाएगी।
    सूरज ने कहा, मैं तो चला पर अब वसंत की सांझ रंग बिखेरेगी। तुम भी बटोर के देखो कुछ रंग। कुछ सहज कुछ चटक।

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    1. कविता को संप्रेषित कर दी बात आपकी.
      बात क्या कही आपने, कविता लिख दी !

      अनमोल सा, संभवतः मर्म आपने ही समझा , आपने तो अपना ली कविता.

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  6. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१९-०२ -२०२२ ) को
    'मान बढ़े सज्जन संगति से'(चर्चा अंक-४३४५)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. अनीता जी, कुछ धारदार, कुछ रुई के फाहे सी. चर्चा रंग-रंग की रचनाओं की.
      बीच में सूरज भी टांकने के लिए सविनय आभार. शीर्षक से यह दोहा भी याद आया ..
      जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग.
      चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटत रहत भुजंग.

      और यह भी...

      कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन.
      जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन.

      नमस्ते.

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  7. बहुत सुंदर!अस्त होते सूर्य और रात के प्राकृतिक सौंदर्य को बखूबी उकेरा है आपने नुपुर जी।
    सुंदर सृजन।

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    1. हार्दिक आभार और नमस्कार सखी.
      प्रकृति के स्थायी सौन्दर्य के सहारे
      आसान हो जाते हैं बोझिल लम्हे.

      हटाएं

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