कभी देखा है
किसी वृक्ष को
अपने में
सिमट कर रहते ?
वृक्ष की जड़ें
मिट्टी में जगह
बनाती जाती हैं ।
वृक्ष की शाखाएं
बाहें पसारे
झूला झूलती हैं,
पल्लवित होती हैं ।
फूल खिलते हैं
जब पंखुरियाँ
घूँघट खोल
श्याम भ्रमर को
भोलेपन से तकती हैं ..
हौले से खिलती हैं ।
खिलती हैं नृत्य मुद्रा में,
सुगंध घोलती हुई
धीर समीर में,
लयबद्ध लहर लहर ।
फिर फल आते हैं,
पक कर गिर जाते हैं,
धरती की झोली में ।
पत्तियों की ओट में
पंछी टहनी टहनी
जोड़ घोंसला बनाते हैं ।
ये सब इसलिए
कि खुली बाँहों में ही
आकाश समा पाता है ।
क्योंकि निरंतर बहना
नदी को निर्मल बनाता है ।
इसलिए नदी की तरह बहना ।
खुशबू की तरह हवाओं में
घुलमिल कर जीना ।
सिर्फ़ अपने में क्या रहना ?
अविचल बहते रहना, राधे राधे कहना, सदा प्रसन्न रहना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सा ।
हटाएंअविरल बहते रहना ।
सदा हँसते रहना ।
"मन तू वृक्षन ते मत ले"
वृच्छन से मत ले, मन तू वृच्छन से मत ले।
हटाएंकाटे वाको क्रोध न करहीं, सिंचत न करहीं नेह॥
धूप सहत अपने सिर ऊपर, और को छाँह करेत॥
जो वाही को पथर चलावे, ताही को फल देत॥
धन्य-धन्य ये पर-उपकारी, वृथा मनुज की देह॥
सूरदास प्रभु कहँ लगि बरनौं, हरिजन की मत ले॥
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 07 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, दिव्या जी ।
हटाएंनमस्ते पर आपका स्वागत है ।
आशा है, आपको अच्छा लगेगा ।
जवाब देंहटाएंकभी देखा है
वृक्ष को अपने में
सिमट कर रहते ?
जी सच कहा आपने पर व्यक्ति ही एक ऐसा प्राणी है, जो संकुचित रहता है।
💐💐
हाँ ।
हटाएंआदमी द्वंद और पूर्वाग्रह में पिसता रहता है ।
धन्यवाद ।
सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, ओंकारजी ।
हटाएंबहुत दिनों में आना हुआ ।
आभार शास्त्रीजी ।
जवाब देंहटाएंये देखना दिलचस्प रहेगा कि सियासत सयानी क्यूँ कर होती है ।
: )
बहते रहना ही जीवन है ... रुक जाओ तो जल भी शुद्ध नहीं रहता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना है ...
धन्यवाद दिगम्बर जी. बहुत दिनों में आपका आना हुआ. अच्छा लगा.
हटाएंबहुत खूब नुपुरम जी | अपने एन खोये रहने से इंसान संकुचित और खुलने से विस्तार पाता है |प्रकृति ही है जो खुलकर जीती है और खुलकर जीने का सन्देश देती है | सुंदर रचना | शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंरेणु जी, नमस्ते पर स्वागत है आपका. हार्दिक आभार.
हटाएंकोरोना काल ने सिखा दिया कि प्रकृति की तर्ज पर ना चले तो रास्ता भूल जाएंगे. खो जाएंगे. आख़िर मनुष्य भी प्रकृति का ही एक हिस्सा है.
नुपुरम जी कृपया अप्रूवल की शर्त खत्म करें | कई बार टिप्पणी में टंकण अशुद्धि हो जाती है तो उसे मिटा नहीं सकते | आशा है आग्रह को अन्यथा नहीं लेंगी | हार्दिक स्नेह के साथ -
जवाब देंहटाएंरेणु जी, इस ओर ध्यान खींचने के लिए आपका शुक्रिया.पहले भी किसी ने ये सलाह दी थी. कृपया मेरी मदद करें समझने में. समस्या असल में क्या है. अप्रूवल की शर्त क्या है ? क्या आप स्क्रीनशॉट भेज कर बता सकती हैं कि दिक्कत कहाँ आ रही है.
हटाएंप्रिय नूपुरम जी, अपना जवाब देख न पाई
हटाएंजिसका मुझे खेद है। आपको बताना चाहूँगी कि ब्लॉग के अंदर setting में जाये । उसपे क्लिक करेंगे तो comment, sharing इत्यादि option आयेगा जिसमें अन्य option के अलावा Comment Moderation ? Option दिखेगा जिसमें आपको never पर क्लिक करके सेव करना है। यदि आप कर सकें तो आपके पाठकों को बडी सुविधा होगी। अगर आपको समझ ना आया हो तो मेरे मेल renu550@gmail.com पर मुझे हेलो कहें तो मैं अपने ब्लॉग की सेटिंग का स्क्रीन शॉट भेज दूँगी। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ रेणु
धन्यवाद, रेणु जी ।
हटाएंये मुझे पता है । समस्या ये है कि मौडरेशन हटाते ही बेकार के कमेंट आने लगते हैं । आप जैसे सुधी लेखकों और पाठकों के लिए नहीं । कृपया अन्यथा न लें । असुविधा के लिए खेद है ।
सकारत्मक रचना
जवाब देंहटाएंअनंत आभार.
हटाएंइसलिए नदी की तरह बहना ।
जवाब देंहटाएंखुशबू की तरह हवाओं में
घुलमिल कर जीना ।
सिर्फ़ अपने में क्या रहना ?
वाह!! बहुत ही सुंदर भाव लिए लाज़बाब सृजन नूपुरं जी,सादर नमन आपको
बहुत-बहुत शुक्रिया कामिनी जी, आपकी सहृदय सराहना के लिए.
जवाब देंहटाएंप्रकृति का मोहक चित्रण ...सराहनीय बिंब ...
जवाब देंहटाएंसादर
धन्यवाद, अनीता जी ।
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