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शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

स्वतन्त्रता



सच्ची स्वतन्त्रता यही है ।

बच्चों की सेना 
जगह - जगह
चौराहों पर, 
प्लास्टिक के तिरंगे 
बेच रही है । 

इन्ही की 
खुरदुरी 
हथेलियों पर,
देश की 
सम्पन्नता 
टिकी है । 

इन्ही के 
दुबले 
कन्धों पर,
देश की 
प्रतिष्ठा 
टिकी है ।    

इनकी 
जिजीविषा 
महाबली है । 
सच्ची 
स्वतंत्रता 
यही है । 



4 टिप्‍पणियां:

  1. नूपर जी बच्चों को शिक्षा का हक़ दे देने से क्या होता है जब तक इन अबोध बच्चों के सही अर्थो में उनका यह अधिकार न दिला सकें| लेकिनफिर भी झंडे बेचने वाले बच्चे भीख माँगने वालों की तुलना में कहीं अच्छे हैं जो खून पसीने की कमाई से अपने व अपने परिवार की क्षुधा को शांत करने के लिए प्रयासरत हैं|

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    1. शर्माजी बिलकुल सही कहा आपने ।
      ये बच्चे अपने पैरों पे खड़े हैं, इसीलिए इनकी अस्मिता महाबली है ।
      पढने के लिए शुक्रिया ।

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  2. सच्ची स्वतन्त्रता क्या है? क्या पता। वह अलग विषय है। कविता यथार्थ में चली गई है, जबकि आप कल्पना में उड़ान भरती ही अच्छी लगती हैं नूपुरम्। अन्त, हो सकता है कि हो, पर मुझे स्व्भाविक नहीं लगा। क़लम रुक गई होगी। सोचना पड़ा होगा। कल्पना खो गई कहीं। कविता ख़तम हो गई। ऐसा मुझे लगा है पढ़ कर। मैं कोई दोष नहीं निकाल रहा। कविता विषय के हिसाब से अच्छी है। बस नूपुर नहीं दिखी मुझे। बस इतनी सी बात है।

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  3. शम्स साहब, सच्ची स्वतंत्रता कहने में ही व्यंग्य निहित है । कल्पना की उड़ान भरते हुए मन का पंछी अच्छा लगता है पर कब तक ? कभी न कभी ज़मीन पर आना ही पड़ता है । यथार्थ अनदेखा भी नहीं किया जा सकता । कलम रुक गयी थी अंत में, सोचना पड़ा था क्योंकि मन तो ये कहता है कि काम करते बच्चों को स्कूल में पढाया-लिखाया जाये पर ऐसा कर नहीं पाते । और स्वाभाविक बिलकुल नहीं पर ये भी सच है कि बेहाली में भी ये बच्चे जीने की ज़िद नहीं छोड़ते , इसलिए महाबली हैं । बस ये बात थी ।

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