लोकल ट्रेन की
पटरियों के किनारे
नाले पर बसी बस्ती ..
बस्ती के घर
बेपर्दा हैं .
झोंपड़पट्टी के घर
दड़बे जैसे ,
निहायत ही ज़रूरती
सामान से भरे .
फ़र्श साफ़-सुथरे ,
आले में
बर्तन चमकते हुए ,
और टीन के डब्बों में
पौधे खिले हुए ..
अपनी अस्मिता का
दावा ठोकते हुए ..
एक चुनौती हैं -
मुफ़लिसी से पैदा हुई
मायूसी के लिए .
सबूत हैं -
जीवन की उर्वरता का .
प्रमाण हैं -
इस बात का कि
जीने और खिलने की निष्ठा
शुद्ध आबोहवा की भी
मोहताज नहीं .
जड़ पकड़ने भर को
बस मुट्ठी भर मिट्टी चाहिए .
टीन के डिब्बों में
रत्न से जड़े हैं ,
छोटे - छोटे ये पौधे
जिद्दी बड़े हैं .
डट कर
जी रहे हैं .
बात कहाँ शुरू हुई। कहाँ चली गई। मैं इस कविता पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। मैंने ये बस्तियाँ देखीं हैं। इनमें रहने वाले लोगों को बहुत नज़दीक से देखा है। यहाँ ज़िंदगियाँ बाहर से क्या नज़र आती हैं, और अंदर से क्या होती हैं, ये फ़र्क़ पता है। टीन के डिब्बों में गुलाब भी होते हैं, और मिर्चे भी। दो बार पढ़ा, दोनों बार अपने ही विचारों में खो गया। कुछ लिखूंगा तो अपने विचारों पर लिख दूँगा। कविता से न्याय न कर सकूँगा। क्षमा चाहता हूँ इस बार के लिये। खुश रहें। लिखती रहें॥
जवाब देंहटाएंagar aap samjhate ki baat kahan shuru hui aur kahan chali gai...to apka abhipray samajh mein aata. par koi baat nahin. jaisa apko theek lage. kavita ko ek taraf rakhiye. janne ki ichha hai ki aap kya jaante hain jo apne nazdeek se dekha hai.baharhaal, apki ye baat hum yaad rakhenge ki teen ke dibbon mein gulaab bhi hote hain, mirche bhi.
जवाब देंहटाएंचलो किसी रोज़ वह भी समझा देंगे। कहीं और मिल गए कभी, किसी रास्ते पर। यहाँ तो बात कविता तक ही रहने दो भाई॥
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