रविवार, 23 अगस्त 2020

ये भी नहीं


फूल नहीं,
फूल की खुशबू नहीं ।
आकाश का छलकता
गहरा नीला रंग नहीं ।
बादलों के पंख नहीं ।
चंद्र और सूर्य नहीं ।
बारिश में भीगी
मिट्टी की सुगंध नहीं ।
नदी का भंवर नहीं ।
कल कल बहता 
जल भी नहीं ।
नैया नहीं, खेवैया नहीं ।
आँगन के कुँए का 
मीठा पानी भी नहीं ।
रूप की लुनाई नहीं ।
शिशु की किलकारी नहीं ।
बगीचे की फुलवारी नहीं ।
धनुष पर चढ़ी प्रत्यंचा नहीं ।
यौवन का मुक्त हास नहीं ।
वय का विलाप नहीं ।
पश्चाताप नहीं ।
प्रकृति का श्रृंगार नहीं ।
पक्षी का गान नहीं ।
ज्ञान की गरिमा नहीं ।
प्रारब्ध का अट्टहास नहीं ।
बचपन की मधुर स्मृति नहीं ।
शब्दों का द्वंद नहीं ।
नवरस अलंकार नहीं ।

ये सब नहीं ।
इन सबके होने की
गहन अनुभूति ही 
कविता है ।


बुधवार, 19 अगस्त 2020

कभी जाना नहीं कैसे


रात्रि के सूने निविड़ अंधकार में
निकल पड़ो अकेले अनमने से
रास्ता नापने निस्तब्ध निर्जन में
तो जान पड़ता है चलते-चलते
बहुत कुछ है अपनी परिधि में जिसे
जान कर भी कभी जाना नहीं कैसे 

न पत्तों की सरसराहट न कोई पदचाप
ऐसे में दूर कहीं से आने लगी मंद-मंद
मंदिर के घंटों की ध्वनि लयलीन और स्पष्ट
हृदय का कोलाहल करती शांत और आश्वस्त
गगन पर टंके चंद्रमा को भी हो रहा कौतूहल
बोझिल परिवेश में हुआ भला-सा परिवर्तन

अनायास ही खुल गए स्मृति के बंद किवाड़
मंदिर जाने के मार्ग में पड़ता था एक घर
टूटी-फूटी ईंटों से झांकता कुटिया का कोना
ढिबरी की रोशनी में मंजीरों का स्वर मधुर
एक साधु अपने में मगन गाता रहता भजन

आते-जाते बना रहा बरसों तक यह क्रम
कीर्तन में डूबा भक्त प्रसन्न भाव अविचल
रस यमुना प्रवाहित होती रहती प्रतिपल
लहर-लहर लयबद्ध प्रवाहित यमुना जल
तट पर हो रहा गान झिलमिलाता दीपदान

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

बौराई सुबह


सुबह हो गई है ।
देखो ठंडी हवा बह रही है ।
पहाड़ी चमेली खिली है ।
अमलतास झूम रहा है ।
तमाल ध्यानावस्थित
और भी घना लग रहा है ।

तुलसी के पौधे मानो
संकीर्तन में मग्न
ठाकुर द्वारे पर समवेत
प्रफुल्लित प्रतीक्षारत
हरि को समर्पित 
होने को तत्पर ।

वो दूर खड़ी कर्णिका
सोच में डूबी हुई सी
हिलडुल कर जता रही
सेवा व्रत लेने की सहमति ।

हरी घास लग रही
और भी हरी ..
नरम दूब मखमली ।

और अभी-अभी कोई
स्थल कमल के पत्ते पर
रख कर मुट्ठी भर मौलश्री 
थमा गया है ।

सहसा सब कुछ बदल गया है ।
आकाश में फड़फड़ाती नवरंगी पतंग
अब सुरों की तरह सध गई है ।

मौसम रहमदिल हो गया है ।
हथेली में खुशबू बस गई है ।
जैसे मेंहदी रचती है ।
क्या हो यदि यही बौराई सुगन्ध
गुपचुप समा जाए 
हाथ की रेखाओं में !
बदलें नहीं हाथ की रेखाएं
बस बौरा जाएं !

देखो रंग-रंग के अनगिनत 
फूल खिले हैं ।
तुम भी खिलो ।
खाली खानों में रंग भरो ।

आज के दिन का स्वागत करो । 
चहचहाती चिड़ियों का गान सुनो । 

स्वर सरस्वती सुब्बलक्ष्मी का सुप्रभात
झकझोर कर जगा रहा है ।
जीवन में रस घोल रहा है ।
बिजली की तरह कौंध रहा है 
तुम भी कौंधो !

भ्रमर बन फूलों का मधु रस चखो ।
पराग हृदयंगम करो 
मौलश्री की बौराई सुगंध बनो ।

सुबह हो गई है, उठो ।

सोमवार, 6 जुलाई 2020

अपने में क्या रहना ?



कभी देखा है 

किसी वृक्ष को 
अपने में 
सिमट कर रहते ?

वृक्ष की जड़ें
मिट्टी में जगह
बनाती जाती हैं ।
वृक्ष की शाखाएं
बाहें पसारे
झूला झूलती हैं,
पल्लवित होती हैं ।

फूल खिलते हैं
जब पंखुरियाँ
घूँघट खोल
श्याम भ्रमर को
भोलेपन से तकती हैं ..
हौले से खिलती हैं ।
खिलती हैं नृत्य मुद्रा में,
सुगंध घोलती हुई
धीर समीर में,
लयबद्ध लहर लहर ।

फिर फल आते हैं,
पक कर गिर जाते हैं,
धरती की झोली में ।
पत्तियों की ओट में
पंछी टहनी टहनी
जोड़ घोंसला बनाते हैं ।

ये सब इसलिए
कि खुली बाँहों में ही
आकाश समा पाता है ।
क्योंकि निरंतर बहना
नदी को निर्मल बनाता है ।

इसलिए नदी की तरह बहना ।
खुशबू की तरह हवाओं में
घुलमिल कर जीना ।
सिर्फ़ अपने में क्या रहना ?



शुक्रवार, 26 जून 2020

रिश्तों का मर्म

रिश्ते 
रेत के महल होते हैं ।
भव्य सुंदर मनोरम
पर एक लहर आए
तो ढह जाते हैं ।
उंगलियों के बीच से
रेत की तरह 
फिसल जाते हैं,
देखते-देखते ।
जतन ना करने से
और कई बार
बिना किसी वजह
रीत जाते हैं ।

संबंध
छीज जाते हैं ।
जैसे छलनी में से
जल ।
अश्रु जल से
बह जाते हैं,
जब बांध
टूट जाता है ।

भवितव्य
पता किसे ?
पर रिश्ते
बनते ही हैं
भले टूट जाएं
कालांतर में ।
बदल जाएं
अनायास ।

स्वभावगत 
क्रम टूटता नहीं पर
प्रकृति का ।
कण-कण जुड़ा है,
एक दूसरे से ।
रिश्ते ना जुड़ें
ये हो सकता नहीं ।
रिश्तों के बिना
आदमी जी सकता नहीं ।

तो क्या हुआ ?
रिश्ते बनाना-निभाना
कष्टप्रद हो या सुखद
व्यर्थ नहीं जाता 
रिश्ते जीना ।

हर रिश्ता
कोई बीज बो जाता है ।
फले ना फले बीज
वृक्ष बन ही जाता है ।
वृक्ष की सघन छाँव में
संभव है एक दिन
कोई थक कर बैठे
और समझ पाए
लेन-देन से परे
रिश्ते-नातों का मर्म ।




गुरुवार, 11 जून 2020

अंतर्कथा

तिरेपन तुरपनों के बाद
बार-बार उधड़ी सिलाइयों की,
तिरेपन पैबंद जोड़ने के बाद,
रंग कुछ फीके पड़ने के बाद,
जैसा भी है कथा ताना-बाना,
कुल मिला कर बुरा नहीं रहा,
हिसाब-किताब लेन-देन का,
बही खाते में जो दर्ज हुआ ।
जुलाहे ने जतन से जो बुना था ।
साधारण पर कच्चा नहीं था धागा ।
धागों और बुनावट की सुघड़ कला
सीखते-समझते समय सरस बीता
तिरेपन धागों की तिहत्तर तुकबंदियां
तमाम किस्सा बिल्कुल वैसा ही था
जैसा और जितना हमसे बन पड़ा ।
अब आगे बढ़ती है धागों की अंतर्कथा ।



शुक्रवार, 5 जून 2020

खुश रहिए

खुश रहने को 
कौन बहुत सामान चाहिए !
सुबह जल्दी आँख खुली
खुश हो गए !
एक नई चिड़िया देखी
खुश हो गए !
बड़े दिनों में चिट्ठी आई 
खुश हो गए !
आज चहेती सखी मिली
खुश हो गए !
गमले में इक कली खिली
खुश हो गए !
नल में पानी देर तक आया
खुश हो गए !
मुश्किल सवाल हल हो गए
खुश हो गए !
अच्छा-सा इक गीत सुना
खुश हो गए !
नानी ने नई कहानी कही
खुश हो गए !
बाबूजी ने शाबाशी दी
खुश हो गए !
माँ की गोद में सो गए
खुश हो गए !

छोटी-छोटी खुशियाँ
चाबी भर देती हैं,
मन तो एक खिलौना है
झट चल देता है !
चलते-चलते मिलती है,
कोई राह नई !
खुशियों की
कड़ियाँ जुड़ती हैं ।
लहर लहर से
एक नदी बन जाती है ।
बड़ी खुशी पाने के लिए
खुश रहना आना चाहिए ।
वर्ना खुश होने को 
कौन बहुत सामान चाहिए !