भान नहीं कुछ,
ज्ञात नहीं पथ,
मुंह चिढ़ा रहा
दोराहा ।
खेल खेलना
आया ना ।
कोई दांव ना
आया रास ।
जो भी खेला
पाई मात ।
समझ ना आया
ग़लत हुआ क्या ?
ध्येय समक्ष था
राह क्यों भूला ?
लक्ष्य जो चूका,
भ्रमित मन हुआ ।
धुंध छंटे ना ।
मार्ग सूझे ना ।
इस मोड़ पे ठिठका,
मैं बाट जोहता,
तुमसे विनती करता ..
पार्थसारथी कृष्ण सखा
इस बेर अर्जुन को क्या
ना समझाओगे गीता ?
रथ को ना दोगे दिशा ?
तुम्हारी ही रचना
मैं हूँ ना ?
तो फिर आओ ना
पूरी करो ना,
मेरे जीवन की
अल्पना ।