शनिवार, 6 जनवरी 2018

सलीका


तमाम 
मिले - जुले रंगों की 
बेतरतीब 
आड़ी - तिरछी रेखाओं में भी  
मनभावन 
तस्वीर नज़र आने लगे  . . 

मेले में खरीदी लाल - हरी 
कांच की चूड़ियां,
चटक चुनरी लहरिया, 
मेहँदी रची हथेलियां,
मिर्च कुतरता तोता,
हरी घास,
अबीर गुलाल,
गेंदा और गुलाब,  
और जो कहिये जनाब !
याद आने लगे !

कोई अच्छी - सी बात सूझे,  
मन 
जीवन का छंद 
गुनगुनाने लगे,
समझिए 
आपको सलीका आ गया !
मुबारक हो !
आपको जीना आ गया !

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

प्राण प्रतिष्ठा



काठ की गुड़िया 
केवल सिर हिलाती है,
बोल नहीं पाती है ।
पर मोल लेने वालों को 
ऐसी ही मूक प्रतिमा 
बेहद पसंद आती है ।

काठ की गुड़िया 
अनेक प्रकार की, 
सारी दुनिया में 
पाई जाती है । 
कई नामों से 
जानी जाती है ।

मिट्टी की गुड़िया ।
मोम की  गुड़िया। 
प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की तो 
ग़ज़ब ढाती है । 
नाक - नक़्श महीन 
और मुँह में ज़बान नहीं । 
और क्या चाहिए जी ?

हामी भरती हुई 
बेजान चीज़ भी 
बड़ी आकर्षक और 
मनभावन होती है ।
खूबसूरती की 
मिसाल होती है।  
कुल मिला कर 
कमाल होती है !

जिस दिन ये गुड़िया 
बोलने लगेगी,
ना जाने क्या-क्या 
कह देगी । 

सब की भलाई 
इसी में है,
ये गुड़िया घर में 
सजावट के लिए ही रहे ।
इसके बोलने में 
बड़ा खतरा है।  

काठ की गुड़िया  . . 
मिट्टी की गुड़िया  . .
कांच की गुड़िया  . . 
रबर की गुड़िया  . . 

जिस दिन ये गुड़िया 
बोलने लगेगी,
सुन्दर दिखे ना दिखे  . . 
अच्छी लगे ना लगे  . . 
दुनिया बदल देगी ।   

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

आत्मबल




कब तक 
माँ दुर्गा ही 
महिषासुर मर्दन करेंगी ?
कब तक 
राजा राम ही 
रावण से युद्ध करेंगे ?

यदि महिषासुर 
और दशानन 
हमारे भीतर की ही 
दशाएं हैं, 
तो हम अपनी लड़ाई 
खुद कब लड़ेंगे ?

सामर्थ्य और 
दायित्व बोध जो 
प्रसाद में पाया हमने 
कब उस आत्मबल से 
स्वयं अपने 
मन के क्लेश 
हरेंगे हम ?


बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

पत्तों को चुपचाप झरते देखा





















पतझड़ में 
एक एक करके 
हरे-भरे 
कुछ-कुछ पीले हो चुके 
पेड़ों से 
पत्तों को चुपचाप 
झरते देखा,
तो मन में 
पल्लवित हुई 
एक इच्छा ।

स्वेच्छा से,

यदि मन में 
गहरे पैठे 
पूर्वाग्रह और कुंठाएं 
यूँ ही आप झर जाएं,
नई संभावनाओं के लिए 
जगह बनाएं,
तो क्या खूब हो !

सहर्ष परिवर्तन का स्वागत हो !

जीवन में नित नया वसंत हो !




   

















मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

दायित्व




अपने अपने आले में, 
दीपक बन के 
जलते रहें ।

इतना भी बहुत है, 
अंधकार में 
उजाला लाने के लिए । 


शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

कही कविता


बचपन से ही कविता को    
संकट के कठिन समय में 
संजीवनी बूटी बनते देखा। 
सुख के चंचल चपल दिनों में 
अहाते में चौकड़ी भरते देखा। 
घर भर के कोने - कोने में 
कविता को रचते - बसते देखा । 

माँ को सदा गृहस्थी के 
उलटे - सीधे फंदों में 
रहीम के दोहे बुनते देखा। 
दाल-भात, खीर और फुल्के 
रसखान के रस में पगते देखा। 

दादा को हर दिन सुबह-सबेरे
चौपाइयों से आचमन करते देखा। 
सूरदास की पदावली में 
ठाकुर दर्शन होते देखा। 

आँखों की नमी को नज़्म होते देखा। 
डूबती नब्ज़ थामने को ग़ज़ल होते देखा। 

कविता से बाँटी मन की पीड़ा। 
जो भी सीखा,कविता से ही सीखा। 

जीवन में लोग आए - गए ,
घटनाक्रम चलते रहे। 
पर कविता ने कभी भी 
साथ नहीं छोड़ा। 

कविता को घर आँगन की 
पावन तुलसी बनते देखा। 
देखा बनते 
सीता मैया की लक्ष्मण रेखा। 
और अर्जुन के लिए 
कृष्ण की गीता। 
कविता से ही सीखा 
जीने का सलीका। 

जब जब ठोकर लगी 
कविता ने ही संभाला। 
कविता जैसा ना पाया 
मनमीत कोई दूजा। 

माँ की गोद से जब उतरे 
कविता की ऊँगली पकड़ के ही 
हमने चलना सीखा। 

कविता से पाई जीवन ने गरिमा। 
कविता से पाई ह्रदय ने ऊष्मा। 

कविता की दृष्टि से ही 
समस्त सृष्टि को देखा। 
कविता में जी को पिरो कर ही 
कविता को जी कर देखा। 


शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

कविता जब सूझी





कविता जब सूझी, 
झट लिख दी । 

बौद्धिक श्रृंगार किया नहीं ।
शब्दों को संजोया नहीं । 
बेवजह मंथन किया नहीं ।
चाँद - सितारे जड़े नहीं ।   

नाप - तोल के देखा नहीं,
लाग - लपेट में पड़े नहीं । 
बस जैसी मन में उपजी, 
वैसी ही अर्पित कर दी। 

भावना सच्ची थी। 
बस इतनी गुणवत्ता थी। 
वर्ना बात ही तो थी ,
कहनी थी कह दी।