सोमवार, 9 जनवरी 2017

समझो महिमा !

कोल्हू का बैल 
उन्हें चाहिए  . . 
आकाओं को ।

कोल्हू का बैल 
जो कभी चूँ तक ना करे ।
जो कहें, बस उतना करे । 
बस तेल बढ़िया निकलना चाहिए,
चारे का इंतज़ाम तो हो जाएगा ।

सवाल मत पूछा करो  !
जी हजूरी किया करो ।
और खुश रहा करो ।
सर झुका कर चला करो !
और एक ही लीक पर चला करो !
देखो ! कोल्हू के चक्कर 
पूरे मनोयोग से लगाया करो !
हम जो कहें करते जाया करो ।

सोचा मत करो ।
सोचने से ध्यान में खलल पड़ता है ।
केवल इस बात का ध्यान करो  . . 
कोल्हू का बैल नहीं रहा 
तो कोल्हू का क्या होगा ?
बना बनाया खेल बिगड़ जाएगा ।

तेल ना निकला 
तो क्या होगा तुम्हारा ?
कहाँ जाओगे ? क्या खाओगे ?
चारे का भी जो जुगाड़ ना हुआ ?
तो क्या होगा ?
क्या करोगे तुम ?
एक बैल कोल्हू की परिक्रमा के सिवा 
और कर भी क्या सकता है ?
उसे तो कोल्हू के चारों तरफ़
घूमने के सिवा 
कुछ आता ही नहीं  . . 
कभी सीखा ही नहीं  !
नहीं ! नहीं ! ये ठीक नहीं !
जितनी दूर देखो 
आँखों से पट्टी हटा कर  . . 
संभावनाएं नज़र आती हैं !
संभावनाओं का आभास होना भी 
खतरे से ख़ाली नहीं !
तख़्ता पलट सकता है !
विप्लव हो सकता है !
इस पचड़े में ना पड़ो तो अच्छा !
वरना खुल जाएगा कच्चा चिटठा !    

तुम एक निरे बैल !
तुम्हारी औकात ही क्या ?
मंडी में तुमसे हज़ार मिलते हैं !
चलो छोडो ! तुमसे बात करने का क्या फ़ायदा ?
तुम ठहरे निरे बैल !

सोच लो !
कोल्हू से बंधे रहे तो जीवन कट जाएगा ।
कोल्हू से बंध कर
अथक परिश्रम कर  . . निर्द्वन्द जीवन जियो !
सुनो ! कर्म ही जीवन है !
चुपचाप चलते रहो लीक पर !
तेल निकलता रहेगा ।
तुम्हारा भला होगा ।

कोल्हू का बैल कभी घोड़ा नहीं हो सकता !
याद रखना !
छोड़ो फिजूल सपनों के बहकावे में आना !
काम करो ! और निरंतर पाठ करो !
समझो कोल्हू के बैल की महिमा !


कांच

जब जब मन 
कांच की तरह 
चकनाचूर हुआ  . . 
और कई बार हुआ  . . 
एक एक टुकड़ा 
मैंने सहेजा,
और संभाल कर रखा ।
उनमें बार - बार 
अपना अक्स देखा 
और सोचा  . . 

चलो ये भी कोई 
बुरा सौदा तो नहीं !
टूटी चीज़ों को जोड़ कर 
एक बेजोड़ कलाकृति बनाना,
एक नए अस्तित्व  . . 
एक नए व्यक्तित्व को 
जन्म देता है । 
टूट कर बिखरने को भी 
एक अर्थ देता है ।
सुंदरता देता है ।
टूटी आस्था को 
जोड़ देता है  . . 
नाम के लिए ही सही ।

कुछ देर के लिए ही सही 
हौसला तो देता है ,
बिखरे कांच समेटने का,
जोड़ जोड़ कर 
एक नयी इबारत गढ़ने का ।
फिर नए उत्साह से जीने का ।         

       

रविवार, 1 जनवरी 2017

अभिमन्यु




हारने के डर से 
अभिमन्यु लड़ना नहीं छोड़ता ।

तो क्या हुआ 
कि उसकी विद्या अधूरी है ?
चक्रव्यूह को भेद कर 
बाहर निकलना आना ज़रूरी है ।
अभिमन्यु को पता है,
युद्ध टाला नहीं जा सकता ।
समय पर जो विद्या 
काम ना आए, 
उस विद्या का उपयोग क्या ?
अभिमन्यु पीछे नहीं हट सकता । 

तो क्या हुआ 
कि वो अर्जुन नहीं ?
कृष्ण तो बिल्कुल नहीं ।
पर वो अभिमन्यु तो है ।

अभिमन्यु मृत्यु से नहीं डरता ।
उसे पता है ,
वो चक्रव्यूह 
भेद नहीं पायेगा ।
पर विजय ना सही, 
वीरगति तो पायेगा।
पराक्रम की 
आधारशिला रख जायेगा ।
अभिमन्यु लड़े बिना
कहीं नहीं जायेगा ।
क्रूर शूरवीरों को 
पाठ पढ़ा कर जायेगा ।
अपना कर्तव्य 
पूरा करके जायेगा ।
अंतिम श्वास तक 
लड़ कर जायेगा ।

उसे पता है, 
महायुद्ध का 
यह अंत नहीं ।
युद्ध कोई निष्कर्ष नहीं, 
मतभेद का ।
पर अन्याय सहना भी,
कोई विकल्प नहीं ।

स्वाभिमान की रक्षा, 
हर मनुष्य का 
कर्तव्य है ।
और आत्मबल ही 
सबसे बड़ा बल है ।
फिर भय कैसा ?
भयभीत होना 
अभिमन्यु ने नहीं सीखा । 
उसने बस इतना जाना, 
कर्म ही है गीता ।
फिर संशय कैसा ?

जो अपनी 
सामर्थ्य भर लड़ा है,
वही योद्धा जीता है । 

रविवार, 25 दिसंबर 2016

ज़िद कर !

आज तेरा दिन है । 
बड़ा दिन है । 

जो औरों का 
दुःख-दर्द अपना कर
सूली पर चढ़ गया,
उसने तुझे भेजा है 
आज के दिन।
तू दुनिया को 
बड़े दिन का 
तोहफ़ा है ।
अपनी पीड़ा 
आत्मसात कर 
दुनिया को हँसाना 
तेरी बेबाक़ अदा है ।
लोगों को हँसा, 
अपना ग़म भुला 
और ख़ुशी के अफ़साने लिख  . . 
जिस तरह दुःख को हँसी में उड़ाना 
तेरा अंदाज़े - बयां है ।

लिख । 
रोज़ अपने मन की बात लिख ।  
कागज़ पे और दिल पे  . . 
और अपने - आप से 
ज़िद कर ।      

ज़िद कर 
दुनिया को हँसते - खेलते 
बेहतर बनाने की ।
हर हाल में मुस्कुराने की  
ज़िद कर ।

ज़िद कर अपनों से 
छोटी - छोटी चीज़ों की !
मचल जा !
ज़िद कर और मांग 
बुढ़िया के बाल,
कंचे, लेमन चूस,
सेंट वाला रबर,
अटरम शटरम,
टपरी की चाय,
सींग दाने की पुड़िया,
भाड़ के भुने चने,
बुलाने का कोई 
पाजी सा नाम,
रहीम के दोहे,
मुल्ला नसरुद्दीन के किस्से  . . 
अपनों से मांग । 
बल्कि सपने,
चाँद - सितारे भी माँग  . . 
अपने खुदा से मांग ।              

जब जी चाहे,
अपनों से 
कस के लिपट जा
और पीठ पर 
एक धौल मांग,
कान का उमेंठना मांग,
डाँट - फटकार मांग 
और ज़िद कर !
ज़िद कर 
गाढ़े अपनेपन की 
मिसरी में पगे, 
खरे - खरे 
दो रूखे बोल मांग !
उनके मन के 
अनचीन्हे कोने में 
थोड़ी - सी जगह मांग !
ज़िद कर !
हक़ जता और 
अपनों से 
ज़िद कर !

आज तेरा दिन है ।
बड़ा दिन है ।
बड़े - बड़े काम कर, 
पर छोटा बन कर 
लड़ - झगड़  . . 
कोई मासूम - सी 
ज़िद कर !
    

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

कर्म ही कविता है

बड़े बड़े व्याख्यान, 
उपदेश महान, 
लेख, आलेख, 
बुद्धिजीवियों के सुझाए 
सारगर्भित समाधान, 
विश्लेषण, विवेचना, 
समालोचना, 
काव्य के सजावटी फूल, 
सब रह जाते हैं 
धरे के धरे ।


सब रह जाते हैं 
धरे के धरे,
अगर समय पर 
ये सारा दर्शन 
काम न आए ।
जो जैसा घाट रहा है, 
वैसा ही रह जाए ।

लेकिन यदि 
नेक नीयत से किया 
एक छोटा - सा भी काम, 
जीवन में एक इंच मुस्कान 
के वास्ते 
जगह बना दे, 
सोई हुई आस जगा दे,
दुःख में सुख ढूंढ़ना सिखा दे,
जो बस में नहीं 
उसे स्वीकार करना, 
जो स्वीकार नहीं 
उसे बदलने का हौसला दे,  
टूट कर जीने का फलसफ़ा दे  . . 

तब ही, 
शब्द की सार्थकता है । 
तब ही, 
शब्द जीवन से जुड़ता है ।  

यानी,
कर्म ही गीता है । 
कर्म ही कविता है ।    


रविवार, 18 दिसंबर 2016

तुम्हें याद रहेगा क्या ?


क्या तुम्हें पता है ?
मैंने हमेशा 
दिल से चाहा है,
कि तुम 
बड़े ना बनो ।  

बड़े ना बनो ।
अच्छे बनो ।

मुझे क्या तुम 
आश्वस्त कर पाओगे ?

जो भी 
मन में हो,
सही ग़लत हो, 
जैसा भी हो, 
जब भी कोई 
बात मन में आए ।
जस की तस 
जैसी मन में आये 
कह पाओगे ?
कहो मेरे लिए 
क्या इतना 
कर पाओगे ?
जीवन भर क्या 
ये याद रख पाओगे ?

क्या मित्रता की 
यह रवायत 
जीते-जी 
निभा पाओगे ?

क्या याद रख पाओगे 
हमेशा ?
किसी के पास तमाम 
सुख-दुःख का हिसाब, 
कल्पना का ज्वार, 
हर अटपटा सवाल, 
बेबुनियाद ख़याल, 
जब चाहे जी में 
उठता बवाल, 
और जिसके लिए     
तुम्हारे जीवन में 
जगह तक नहीं, 
वो नाजायज़ जज़्बात  . .  
सब तुम्हें दर्ज कराने हैं । 
छोड़ कर जाने हैं 
किसी के पास।

बिना किसी वजह के 
बिना किसी सवाल - जवाब 
जमा करते जाना है ,
क्योंकि ये अख़्तियार 
तुमने ख़ुद मुझे 
दिया है ।     

अहद किया है ,
कोई नाता हो ना हो, 
मन की हर बात तुम्हें 
देनी है मुझे, 
ताकि एक दिन 
इन सारी बातों को, 
मथ कर पिरो कर,  
कोई एक बात 
लौटा सकूँ तुम्हें
ताबीज़ की तरह ।

मेरे लिए इतना 
कर सकोगे क्या ?
तुम्हें याद रहेगा क्या ?

बताना ।    


सोमवार, 12 दिसंबर 2016

मेरे हिस्से का आकाश





                               मेरे हिस्से में 
                               जितना भी 
                               आकाश है,
                               बहुत है.. 
                               पंख फैला कर 
                               उड़ान भरने के लिए ।  

                               काफ़ी है, 
                               बाँहें फैला कर 
                               समूचे आकाश को 
                               गले लगाने के लिए ।


                               सबके लिए, 
                               दिल में जगह
                               बनाने के लिए ।