रविवार, 2 अक्तूबर 2016

लड़ाई अभी बाकी है




जंग जीत ली है । 

सीमा पर तैनात सिपाही ने 
जंग जीत ली है। 

हर हिंदुस्तानी को 
सीना तान कर चलने की 
वजह दी है ।

सीमा की लड़ाई 
जवानों ने जीत ली है।  
पर सीमा के भीतर की लड़ाई ..
वही जो बापू ने थी सिखाई। 
याद है ना ?

हाँ वही .. सोच की लड़ाई। 
सोच की लड़ाई ..
खुद को जीतने की लड़ाई। 
मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है। 

मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है। 
मेरे हिस्से का कर्म योग अभी बाकी है। 

इतने दिन अपना आँगन साफ़ रखा। 
अपने मौहल्ले की सफ़ाई अभी बाकी है। 

इतने दिन अपने रूप का जतन किया,
मन पर जमी धूल पोंछना अभी बाकी है।

इतने दिन अपनी आजीविका का साधन जुटाया ,
साधनहीन की गरीबी दूर करना अभी बाकी है। 

इतने दिन ग़लत बातों का सिर्फ़ शिकवा किया ,
ग़लत का निर्भय हो सामना करना अभी बाकी है। 

इतने दिन बुरी आदतों और रूढ़ियों का रोना रोया ,
दीमक सी चिपकी आदतों को सुधारना अभी बाकी है। 

बाकी है। 
मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है। 

सीमा पर तैनात सिपाही ने 
जंग जीत ली है। 

पर मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है।      


शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

महालय





आज महालय के दिन माँ दुर्गा को जब देखा ,
बोला आज अदभुत है आपके मुख की आभा !
माँ ने मद्धम मद्धम मुस्कुरा कर आनंद से कहा.. 
जानते नहीं मेरे बेटों ने जो मेरा सिर ऊँचा किया ?
वो हर जवान जो देश की रक्षा में शहीद हुआ ..
वो हर जवान जो देश की सुरक्षा में डटा रहा ..
हर उस जवान ने माँ के दूध का क़र्ज़ अदा किया !
आज माँ दुर्गा में मैंने माँ भारती का दर्शन किया ।




रविवार, 17 जुलाई 2016

उम्मीद





ये जो . . 

एक अकेला फूल 
मिट्टी में खिला है  . . 

ओ हेनरी की कहानी 
द लास्ट लीफ़ के 
अंतिम पत्ते की तरह ,

इस दुनिया के 
बचे रहने की 
आख़िरी उम्मीद है । 



शनिवार, 25 जून 2016

सोनमोहर


हर रोज़ उस रास्ते से 
गुज़रते देख कर मुझे 
क्या कहा होगा दूसरे पेड़ों से
उस अकेले सोनमोहर ने ?

एक दिन इस थके-माँदे 
राहगीर के रास्ते में ,   
क्यूँ ना बिछा दें 
फूल बहुत सारे ?

एक दिन के लिए ,
शायद बदल जाएं 
उसके चेहरे के,
भाव थके -  थके से ।

रास आ जाएं 
करतब ज़िंदगी के ।
बाहें फैला दें 
दायरे सोच के ।

तो क्यूँ ना बिछा दें 
फूल बहुत सारे ?



    

शुक्रवार, 17 जून 2016

कहो कब बरसोगे घन ?





कहो कब बरसोगे घन ?
कब पावन होगा मन ?



कब बूँदों की ताल पर 
आँगन आँगन झूमेगा ?
कब बावरा होगा मन ?


कब वर्षा को आँचल में भर 
छलकेंगे ताल तलैया ?
कब तृप्त होगा मन ?


कब मिटटी को गूंथेगा जल 
धरती में अंकुर फूटेगा ?
कब कुसुमित होगा मन ?


कब मेघों की गर्जना पर
मयूर पंख फैलाएगा ?
कब थिरकेगा मन ?


कब साँवले आकाश पर 
इंद्रधनुष मुस्काएगा ?
कब बलिहारी जाएगा मन ?


कब कल्पना के खुलेंगे पर 
कवि चित्रकार बन पाएगा ?
कब भावुक होगा मन ?


कहो कब बरसोगे घन ?
कब पावन होगा मन ?



रविवार, 12 जून 2016

क्या ऐसा नहीं हो सकता ?

तुमने 
दुनिया का 
सबसे बड़ा सच 
सुना दिया -
एक म्यान में 
दो तलवारें 
नहीं सकतीं !

ये बात कोई भी 
नकार नहीं सकता। 
पर क्या 
तुम्हारे मेरे 
दरमियान 
कोई और रिश्ता 
नहीं हो सकता ?

क्या ऐसा 
नहीं हो सकता कि 
हम साथ रहें  
तलवारों की तरह नहीं ,
हम जियें 
फूलों की तरह ,
साथ साथ  
एक ही क्यारी में खिलें ?
एक दूजे के मन में बसें 
खुशबू की तरह  . . 

क्या ऐसा 
नहीं हो सकता ?