रविवार, 1 अप्रैल 2018

मास्टरपीस




जो कह कर भी 
कही ना जा सकीं,
उन बातों की छाप ही 
कहलाती है कल्पना ।

कागज़ ,कैनवस या  
मन का कोना,
कहीं भी 
लिख डालो ,
या रंग दो  . . 
जो उस वक़्त सही लगता हो, 
जब  ह्रदय में उठा हो ज्वार 
या उमड़ी हो वेदना । 

कह ना पाओ 
तो कोलाज बनाओ 
अनुभूतियों का । 
या सजाओ  
रंगोली या अल्पना 
उस रास्ते पर, 
जहां से 
थके-हारे मायूस लोग 
गुज़रते हों ।
यह मौन अभिवादन, 
शायद उन्हें 
ऐसे किसी की 
याद दिला दे, 
जिसने हमेशा 
उनकी भावनाओं का 
किया था आदर । 

या काढ़ो चादर पर 
रुपहले बेल,बूटे और फूल 
जो उन दिनों की 
स्मृति के पट खोल दे,   
जब बिना बुलाये  . .  
माँ की गोदी में 
सिर रखते ही 
झट से आ जाती थी  . .  
सुन्दर सपनों वाली नींद । 

सोच कर नहीं, 
महसूस कर 
जब लिखी जाती है नज़्म, 
रंगे जाते हैं 
कागज़ , दुपट्टे और मन, 
तब कहीं 
बनती है मोने की पेंटिंग  . .  
तब जाकर लिखी जाती है 
द लास्ट लीफ़  . . 
और रचना कहलाती है 
मास्टरपीस ।