एक था गोविंदा ।
सब कहते थे करमजला ।
माँ - बाप का इकलौता बेटा ।
पर पैरों से लाचार था ।
बैसाखी लेकर चलता था ।
किसी काम का ना था ..
खेत क्या जोतता ?
बच्चे जब खेलते थे ।
दूर बैठा तकता रहता ।
गुपचुप रोता रहता ।
एक दिन माँ ने देखा ।
गोविंदा चुपचाप बैठा
टूटे - फूटे सामान का
कुछ बना रहा था .
माँ ने सोचा ,
रोने से कुछ करना अच्छा ।
फिर एक दिन माँ ने देखा,
बच्चों ने घेर रखा था ।
गोविंदा कुछ दिखा रहा था ।
एक अटपटा खिलौना था ।
पर सबके मन को भा रहा था ।
और गोविंदा मुस्कुरा रहा था ।
बस माँ ने ठान लिया ।
अब यही करेगा मेरा बेटा ।
टूटे - फूटे को जोड़ेगा ।
फूटी किस्मत संवारेगा ।
पैरों पे खड़ा नहीं हो सकता तो क्या ?
हाथ के हुनर से अपना पेट भरेगा ।
फिर क्या था !
माँ - बाप ने बीड़ा उठाया ।
करमजले को खिलौने बनाना
सबने मिल कर सिखाया ।
सारे गाँव ने करमजले को अपनाया ।
जो काम सहानुभूति से कभी ना होता।
वही हुनर ने कर दिखाया ।
अब कोई बच्चे के लाचार पैर नहीं देखता ।
अब समाज बन गया है मनसुखा ।
और मनसुखा के कंधे पर बैठा
करमजला अब गोविंदा हो गया है !