शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

हर नया दिन





हर नया दिन 
एक फूल की तरह
खिलता है,
और कहता है  . .
उठो जागो !
बाहर चलो !
शुरू करो
कोई अच्छा काम,
लेकर प्रभु का नाम 
आगे जो होगा
सो होगा,
अभी तो
कोशिश करो,
बन जाएं बिगड़े काम ।

देखो, 
मुझे भी पता है ।
कुछ देर की छटा है ।
जो खिलता है
मुरझाता है ।
पर जब तक
खिलता है,
मुस्कुराता है ।
भीतर जंगले के 
गमले में,
या मिट्टी की क्यारी में ।
जूड़े में सजे,
या अर्पित हो
देव के चरणों में ।
सेहरे में झूले
या आप ही
मिट्टी में मिल जाये ।
चाहे किताबों में
रखा सूख जाए ।
फूल जब तक 
खिलता है,
मुस्कुराता है 
फिर स्मृति में
सुगंध बन बस जाता है ।

हर नया दिन
फूल की तरह
खिलता है 
तुम भी खिलो 
जीवन के हर पल में 
सुगंध बनो,


बसो सबके मन में ।


सोमवार, 23 अप्रैल 2018

किताब




मेरे ज़हन में 
एक किताब है, 
जिसे बड़े जतन से 
संभाल कर रखा मैंने ।  
ये किताब  . . किताब नहीं 
इबादत है ।
इसमें दर्ज हैं 
वो सारी बातें, 
जो सच्चे मन से 
चाही थीं कभी  . . 
कुछ करते बनीं,
कुछ रह गईं रखी 
मेज़ की आख़िरी  
दराज में ।     
हो  सकता है, 
कभी कोई 
मेरे ज़हन को तलाशे,
और उसे मिल जाए  
यही किताब जो  मेरी है,  
पर मैंने उसके नाम की है । 


रविवार, 1 अप्रैल 2018

मास्टरपीस




जो कह कर भी 
कही ना जा सकीं,
उन बातों की छाप ही 
कहलाती है कल्पना ।

कागज़ ,कैनवस या  
मन का कोना,
कहीं भी 
लिख डालो ,
या रंग दो  . . 
जो उस वक़्त सही लगता हो, 
जब  ह्रदय में उठा हो ज्वार 
या उमड़ी हो वेदना । 

कह ना पाओ 
तो कोलाज बनाओ 
अनुभूतियों का । 
या सजाओ  
रंगोली या अल्पना 
उस रास्ते पर, 
जहां से 
थके-हारे मायूस लोग 
गुज़रते हों ।
यह मौन अभिवादन, 
शायद उन्हें 
ऐसे किसी की 
याद दिला दे, 
जिसने हमेशा 
उनकी भावनाओं का 
किया था आदर । 

या काढ़ो चादर पर 
रुपहले बेल,बूटे और फूल 
जो उन दिनों की 
स्मृति के पट खोल दे,   
जब बिना बुलाये  . .  
माँ की गोदी में 
सिर रखते ही 
झट से आ जाती थी  . .  
सुन्दर सपनों वाली नींद । 

सोच कर नहीं, 
महसूस कर 
जब लिखी जाती है नज़्म, 
रंगे जाते हैं 
कागज़ , दुपट्टे और मन, 
तब कहीं 
बनती है मोने की पेंटिंग  . .  
तब जाकर लिखी जाती है 
द लास्ट लीफ़  . . 
और रचना कहलाती है 
मास्टरपीस ।