शर्मिष्ठा शर्मा ..
उम्र पैंतीस के लगभग,
बारह वर्ष नौकरी का अनुभव,
कद-काठी सामान्य .
रोज़ सुबह
जैसे ही स्कूल बस जाये,
हैवरसैक सीने से चिपकाये,
धड़धड़ाती हुई रेल की तरह
लोकल ट्रेन पकड़ने
घर से कूच करती है..
जैसे मार्चिंग ऑर्डर्स मिले हों .
एक नदी की तेज़ धार,
भीड़ के अपार समुद्र में
समा जाती है .
हाथ-पाँव मारते हुए,
अपनी जगह बनाते हुए,
ख़ुद को साधना पड़ता है
तीर की तरह तन कर ..
पैना बन कर .
यात्रा का पहला चरण तय कर,
आगे बढती है बस पर चढ़ कर .
जद्दोजहद यहाँ भी नहीं कम पर .
जिन्हें काम की लत लगी,
उन्हें काम की कमी नहीं.
दिन भर हुआ काम,
फिर हो गई शाम .
शाम को भी वही दस्तूर,
आख़िर बस्ती है बहुत दूर .
पैदल परेड करते हुए,
बस में फांस की तरह फंसे हुए,
ट्रेन में मल्लयुद्ध करते हुए .
युद्धस्तर पर जीते हुए,
कैसे हर दिन फिर दोबारा,
तैनात हो जाती है
शर्मिष्ठा शर्मा ?
शाम तक शरीर का
ईंधन चुकते-चुकते,
क्यूँकर इसके
पाँव नहीं थकते ?
घर लौटने तक,
किस खुराक पर
सरपट दौड़ती है
शर्मिष्ठा शर्मा ?
एक दिन उससे पूछा था,
तो उसने जवाब दिया था ..
सुबह मुझे रहती है जल्दी,
आजीविका कमाने की .
घर लौटते हुए,
मन में प्रबल
एकमात्र इच्छा,
जल्दी से जल्दी
देखना होता है
बच्चों का
चेहरा .
सुननी होती हैं
उनकी बातें,
जी चुरा लेती हैं
उनकी
शरारतें .
सारी दुश्वारियों से
भिड़ जाती है
शर्मिष्ठा
शर्मा ,
क्योंकि उसे
देखना होता है
अपने बच्चों का
चेहरा .