शनिवार, 25 मई 2013

अकेलापन




फिर वही .

फिर वही 
सूनापन .

फिर वही 
सड़क पर आते-जाते 
लोगों को 
देखना 
एकटक .
फिर वही 
घड़ी में
बार-बार 
देखना 
समय .
फिर वही 
डोर बेल के 
बजने का 
इंतज़ार .
फिर वही 
मोबाइल पर 
चेक करना 
मिस्ड कॉल .

फिर वही 
पलंग पर लेटे-लेटे 
पंखे को 
देखना .

फिर वही 
फ़ेसबुक पर 
दोस्त ढूँढना .
अपनी पोस्ट को 
कितनों ने लाइक किया , 
अधीर होकर गिनना .
फिर वही 
जाने - अनजाने लोगों के 
ट्वीट्स में 
संवाद तलाशना .

फिर वही 
टेबल लैंप का स्विच 
बार - बार ऑन करना 
ऑफ़ करना .
सोचने के लिए 
कोई बात 
सोचना .

फिर वही 
डेली सोप में 
मन लगाना .
धारावाहिक के 
पात्रों में 
अपनापन खोजना .
उनकी कहानी में 
डूबना - उतरना ,
उन्ही के बारे में 
अक्सर सोचना .
फिर वही 
रेडिओ के 
चैनल बदलते रहना .
फिर वही 
सच्ची - झूठी 
उम्मीद बुनना .

फिर वही 
हर बीती बात की 
जुगाली करना .
फिर वही 
वक़्त की दस्तक 
सुन कर 
चौंकना .
फिर वही 
दिन - रात को 
खालीपन के 
धागे से सीना .
फिर वही बेचैनी ,
अनमनापन .

फिर वही 
अकेलापन .


  

बुधवार, 22 मई 2013

हिसाब की डायरी




बड़ी  दिलचस्प है , 
मेरे घर की 
हिसाब की डायरी .
काले रंग की ,
मझोले आकार की 
हिसाब की डायरी .

मज़े की बात है ,
ये एक ही डायरी है 
घर में ,
जिसमें 
घर के हर सदस्य की 
लिखावट मिलेगी .

क्या - क्या खरीदा ..
कितने में खरीदा ..
किसको कितने पैसे दिए .
किसके कितने पैसे खर्च हुए ..
पॉलिसी कब मैच्योर होगी ..
लोन की किश्त कब भरनी होगी ..
कहीं किसी का नंबर नोट है .
कहीं किसी पासवर्ड का उल्लेख है .
ये डायरी नहीं 
माँ की गृहस्थी की 
छोटी तस्वीर है .
जन्मपत्री है ,
इस घर की .

डायरी के हर पन्ने पर 
एक सुविचार छपा है ,
जैसे हर कदम पर 
मील का पत्थर बना है .
मील के पत्थर पर लिखा है,
सफ़र तय होने का हिसाब - किताब .

डायरी के लिए निश्चित है ,
उधर कोने वाली दराज़ .
डायरी में दर्ज हैं 
घर चलाने के उतार - चढ़ाव .
खर्च और कमाई का लेख - जोखा ,
लेन - देन  का समूचा ब्यौरा .   
इस डायरी का हर पन्ना ,
है गृहस्थी की चालीसा .




रविवार, 19 मई 2013

शबरी के बेर




कहाँ राम .. सीता मैया !
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ !
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !

सब अपनी झोली भरते हैं !
रुपये को ही सब भजते हैं !
मतलब के सारे कायदे हैं !
मुखौटों के बड़े फ़ायदे हैं !
अब सज्जन पुरुष सुनो भैया !
बस कथालोक में मिलते हैं !

कहाँ राम .. सीता मैया ! 
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ ! 
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !


यहाँ सीधे - सादे लुटते हैं !
और चलते पुर्जे चलते हैं !
यहाँ आम आदमी पिसता है !
और नेता ठाठ से जीता है !
अब सेवा, सत्याग्रह भैया !
सब चुनावी नुस्खे हैं !

कहाँ राम .. सीता मैया ! 
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ ! 
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !


बच्चों का दूध मिलावटी है !
खुशहाली भी सजावटी है !
यारों का जतन दिखावटी है !
नाहक ही लागलपेटी है !
जो ईमान पे जीते हों भैया !
वो यदा-कदा ही मिलते हैं !


कहाँ राम .. सीता मैया !
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ !
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !





शुक्रवार, 17 मई 2013

टीन के गमले



लोकल ट्रेन की 

पटरियों के किनारे 
नाले पर बसी बस्ती ..
बस्ती के घर 
बेपर्दा हैं .
झोंपड़पट्टी के घर 
दड़बे जैसे ,
निहायत ही ज़रूरती 
सामान से भरे .
फ़र्श साफ़-सुथरे ,
आले में 
बर्तन चमकते हुए ,
और टीन के डब्बों में 
पौधे खिले हुए ..
अपनी अस्मिता का 
दावा ठोकते हुए ..
एक चुनौती हैं -
मुफ़लिसी से पैदा हुई 
मायूसी के लिए .
सबूत हैं -  
जीवन की उर्वरता का .
प्रमाण हैं -
इस बात का कि  
जीने और खिलने की निष्ठा 
शुद्ध आबोहवा की भी 
मोहताज नहीं .
जड़ पकड़ने भर को 
बस मुट्ठी भर मिट्टी चाहिए .
टीन के डिब्बों में 
रत्न से जड़े हैं ,
छोटे - छोटे ये पौधे 
जिद्दी बड़े हैं .
डट कर 
जी रहे हैं . 


रविवार, 12 मई 2013

कह डालो




बेबस दिल का गुबार निकालो ,
झट से इक कविता लिख डालो .
और किसी से कहो न कहो ,
कविता में सब कुछ कह डालो .

शब्दों को अपना मित्र बना लो .
भावों को सारथी बना लो .
मन के द्वन्द सकल मथ डालो .
कविता में सब कुछ कह डालो .

बासी बातों को धूप दिखा दो .
आस की चुनरी रंगवा लो .
स्मृतियों की गठरी खोल डालो .
कविता में सब कुछ कह डालो .

झाड - पोंछ कर साफ़ करा लो .
मन में पूजा का दीप जला लो .
जो लिखा वही नैवेद्य चढ़ा दो .
कविता में सब कुछ कह डालो .