शनिवार, 25 जून 2016

सोनमोहर


हर रोज़ उस रास्ते से 
गुज़रते देख कर मुझे 
क्या कहा होगा दूसरे पेड़ों से
उस अकेले सोनमोहर ने ?

एक दिन इस थके-माँदे 
राहगीर के रास्ते में ,   
क्यूँ ना बिछा दें 
फूल बहुत सारे ?

एक दिन के लिए ,
शायद बदल जाएं 
उसके चेहरे के,
भाव थके -  थके से ।

रास आ जाएं 
करतब ज़िंदगी के ।
बाहें फैला दें 
दायरे सोच के ।

तो क्यूँ ना बिछा दें 
फूल बहुत सारे ?



    

1 टिप्पणी:

  1. अच्छा जी। सोनमोहर को बड़ा प्रेम आ रहा है इस थके मांदे पर। अरे बिछा दो न सारे फूल। ये सारे उठा ले जायेगी और घर जाकर उसके पकौड़े तलेगी।

    वैसे कविता अच्छी है। प्रकृति से जुड़ी तेरी रचनाएँ अच्छी ही होती हैं। जो दिल में है, वह सीधे सादे शब्दों में कह दिया गया है; इस लिए इस पर ज़्यादा कुछ तो है नहीं लिखने को। थके – थके से’ शब्दों का दोहराना तेरा अपना अंदाज़ है जो तूने हमेशा बड़ी ख़ूबी से प्रयोग किया है। मगर अब तो ज़्यादातर तू अपना यह ख़ास अंदाज़ भूली ही रहती है। एक पेड़ का यह प्रयास कि वह एक मानव के जीवन को सरल बनाना चाहता है, अच्छा है। बहुत अच्छा है। आज जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के जीवन को केवल कठिन बनाने में लगा हुआ है, प्रकृति को आगे आ कर प्रयास करना पड़ रहा है, यह विचार सराहनीय है।

    बिछा दो भाई, सोनमोहर जी। फूल बिछा दो। बनता है जी॥

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