रविवार, 15 फ़रवरी 2015

छत



दफ्तर से लौटते वक़्त 
रोज़ाना,
सिग्नल वाले मोड़ पर, 
पुल के नीचे,
बस रूकती है 
एक दो मिनट ।

अक्सर 
मेरी खिड़की से 
दिखाई देता है 
पुल के नीचे का 
एक कोना 
जहाँ 
एक परिवार बसता है ।

रोज़ दिखाई देता है 
वह छोटा - सा परिवार ।
एक कम उम्र की औरत,
उसका छोटा-सा बच्चा,
एक बड़ी उम्र की औरत,
उसकी सास शायद  . . 
और संभवतः आदमी उसका ।
उनकी गृहस्थी बँधी 
कुछ पोटलियों में ।

बस जब रूकती है 
डेढ़-दो मिनट  . . 
खाना बन रहा होता है 
अक्सर ।
चार ईंटों पर बना चूल्हा 
उस पर एक तवा,
तवे पर सिकती मोटी रोटी 
देख कर भूख लग आती है ।

बड़ी औरत हमेशा 
एक ही जगह 
बैठी नज़र आती है,
हिडिम्बा जैसी,
स्थापित स्तूप की तरह ।
खाना वही बनाती है ।
कभी-कभी लेटी नज़र आती है,
पोटलियों के बीच ।

असल में वही है 
परिवार की मुखिया ।
गल्ले पर जैसे सेठ बैठा हो,
वह बैठी-बैठी, 
छोटी-छोटी प्लास्टिक की डिब्बियों से 
शायद मसाला निकालती है,
छौंक लगाती है ।

बच्चे की दूध की बोतल भी 
रखी होती है ।
ज़रुरत की चीज़ें सभी 
उन पोटलियों में मौजूद हैं ।

एक दिन अचानक देखा,
चूल्हा पड़ा था ठंडा ।
और सामान भी नहीं था ।
जी धक से रह गया ।
कहाँ गए ? क्या हुआ ?
मन उदास हो गया 
उन्हें ढूँढता हुआ ।

अगले दिन फिर देखा  . . 
वही सरंजाम था ।
परिवार वापस आ गया था !
जान कर चैन आया ।

रोज़ का सिलसिला 
फिर शुरू हो गया ।
पुल का कोना फिर बस गया ।

उनका चूल्हा जलता रहे ।
चूल्हे पर कुछ ना कुछ पकता रहे ।
बच्चे की दूध की बोतल भरी रहे ।
बस इसी तरह रोज़ रुका करे ।
उनसे मेरा रिश्ता बना रहे ।
और भगवान करे  . . 
एक दिन
उनके भी सर पर हो 
एक छत ।



तुम हो



जब छत से आँगन में धूप उतरती है,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
सुनहरी धूप की गुनगुनी छुअन तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।

जब घर की क्यारी में फूल खिलते हैं,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
इन फूलों की भीनी खुशबू तुम हो ।         
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।

जब खेतों में पुरवाई चलती है,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
चंचल हवाओं की अल्हड़ शोखी तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।

जब बरामदे में बच्चे शोर मचाते हैं,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
शरारती बच्चों की मासूमियत तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।