रविवार, 17 मई 2015

अश्रु झरते दिन रात



जिस तरह पतझड़ में झरते पात,
नयनों से अश्रु झरते दिन रात ।  

दुविधा की इस घड़ी  में कोई नहीं साथ,
कोई नहीं साथ जो समझे मन की बात ।

मन के सहज भावों ने किया आत्मघात,
अंतर के कोलाहल का निष्ठाओं पर आघात ।    

भव्य प्रस्तर प्रतिमाओं के बीच,
कोमल फूलों की क्या बिसात ।  


1 टिप्पणी:

  1. विषय अच्छा है। उठाया भी अच्छा है। अंत भी सुंदर है। बहते आँसू अक्सर बरसते पानी से जोड़े जाते हैं, मगर यहाँ झड़ते पत्तों के प्रयोग ने उनके दर्द को और बढ़ा दिया है। उत्तम। बाहर आँसू हैं तो अन्दर दुविधा, सूनापन, मन की व्यथा जो बीच की चार लाइनों में बड़ी अच्छी तरह उभर कर आई है। अन्त में पत्थर की प्रतिमाओं का प्रयोग जो बाहर पत्थर दिल समाज और अन्दर अपने ही पत्थर बने रिवाज या विचार की तरफ़ इशारा हो सकता है, उसमें कोमल मन को ख़ामोशी से रख दिया है। सब कुछ ठहर सा गया है। कोलाहल थम गया है। तूफ़ान सी उठती लहरें शान्त हो गई हैं। और बात फिर वहीं बहते आँसुओं से जा कर जुड़ गई है। क्योंकि वह तो ख़ामोशी से बहते ही जा रहे हैं। यह एक चक्र है, जो चलता ही जा रहा है। कोई अन्त नहीं है। सुन्दर। अति सुन्दर॥

    अब नियम क़ायेदा देख लें ज़रा। फिर से लिखो इसको बेटा। पहले आप ही पढ़ो कि क्या ज़ुल्म किया है कविता के साथ। पहली पंक्ति से ही बैलेंस गड़बड़ा गया है। अंतिम दो पंक्तियाँ तो बुलकुल ही नहीं बैठ रही हैं ऊपर की पंक्तियों के साथ। कविता को या तो बिलकुल ही बिखेर दो, जैसा कि दूसरी कविताओं में किया है, या फिर अगर एक पंक्ति पर दूसरी पंक्ति जोड़ी है तो उनमें कोई रिश्ता तो हो। मात्राओं की संख्या में मेल होना ज़रूरी है। कर सको तो अच्छा है। रचना उत्तम, और उत्कृष्ट हो जायेगी। नहीं तो कोई बात नहीं। जिनके पल्ले पड़नी है, ऐसे ही पड़ जायेगी, जिनके नहीं पड़ने की, उनके कैसे भी नहीं पड़ने की॥

    ख़ुश रहो। लिखती रहो॥

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