शनिवार, 6 जुलाई 2013

छाप



नहीं पता ..
कैसी है ये दशा ।
पढ़ा हुआ 
कुछ भी 
याद नहीं रहता .

             एक सुन्न सन्नाटा 
             स्मृति पर छाया हुआ,
             जैसे गाढ़ा कोहरा
             धुंध का दुशाला दोहरा, 
             जब भी पीछे मुड़ कर देखा।

पढ़ा हुआ क्या 
कुछ भी 
याद नहीं रहता ?
पढ़ कर जो कुछ पाया 
क्या सब खो दिया ?

             अँधेरी कोठरी में जला कर दिया
             जैसे कोई चीज़ खोजना .. 
             ऐसे ही अपने प्रश्न का 
             मैंने स्वयं उत्तर दिया ।  

नहीं हो पाती 
पढ़े हुए की व्याख्या,  
पर रह जाता है 
एक अहसास चुप-चुप सा ।
कहा नहीं जा सकता, 
पर अनदेखा भी 
किया नहीं जा सकता ।
एक अव्यक्त अनुभूति होती है ।
कोई बात रह जाती है ।
जैसे हवा में खुशबू घुल जाती है ।
जैसे गीली मिट्टी पर छाप रह जाती है ।

             फूल मुरझा जाते हैं ।
             पर सुगंध मन में बस जाती है ।
             वर्षा का जल बह जाता है ।
             पर मिट्टी नमी सोख लेती है ।

समय की लठिया टेकता 
पतझड़ जब आता है, 
सारे पत्ते झड़ जाते हैं । 
और अगर तूफ़ान आ गया .. 
सब कुछ तहस-नहस कर जाता है ।

इतना सब ध्वस्त 
होने के बाद भी, 
मिट्टी में कहीं 
बीज दबा रह जाता है ।
भाव के इस बीज से ही 
कल अंकुर फूटेगा । 
विचारों का पौधा 
पल्लवित होगा । 
और संवेदनशीलता का 
हरा-भरा वृक्ष लहलहायेगा 
अंतःकरण की 
उर्वर भूमि पर ।                       
                      
            



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